189 मौतें, 850 घायल, और फिर,आरोपियों की सजा माफ़ी का रहस्य!
11 जुलाई 2006 की वह काली शाम मुंबई के इतिहास में एक दुखद अध्याय के रूप में दर्ज है। मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों में महज 11 मिनट के भीतर सात सिलसिलेवार बम धमाकों ने पूरे शहर को दहला दिया। माटुंगा, बांद्रा, खार, माहिम, जोगेश्वरी, बोरीवली और मीरा-भायंदर जैसे स्टेशनों पर हुए इन हमलों में 189 बेगुनाह लोगों की जान चली गई, जबकि 850 से अधिक लोग घायल हुए।
यह भारत के सबसे भयावह आतंकी हमलों में से एक था, जिसने न केवल मुंबई को, बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लेकिन 19 साल बाद, 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाई कोर्ट के एक फैसले ने इस मामले को एक नया और विवादास्पद मोड़ दे दिया। कोर्ट ने इस मामले में दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस फैसले ने न केवल पीड़ित परिवारों को स्तब्ध किया, बल्कि जांच एजेंसियों और न्यायिक व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़े किए।
सजा माफ़ी का रहस्य: सबूतों की कमी या जांच की नाकामी?
बॉम्बे हाई कोर्ट की विशेष पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अनिल किलोर और न्यायमूर्ति श्याम चांडक शामिल थे, ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ ठोस और विश्वसनीय सबूत पेश करने में पूरी तरह विफल रहा। कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर अपनी टिप्पणी दी।
पहला, गवाहों की गवाही को अविश्वसनीय माना गया। कोर्ट ने कहा कि धमाकों के 100 दिन बाद भी टैक्सी ड्राइवरों या अन्य चश्मदीदों द्वारा आरोपियों की पहचान करना असामान्य है। दूसरा, कथित आरडीएक्स और अन्य विस्फोटक सामग्री की बरामदगी को लेकर कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला। तीसरा, आरोपियों के कबूलनामे को जबरन और दबाव में लिया गया माना गया, जो कानूनन मान्य नहीं हैं।
इस फैसले ने कई सवाल खड़े किए। क्या 19 साल तक चली जांच और सुनवाई में इतनी बड़ी चूक हो सकती है कि कोई ठोस सबूत ही न मिले? महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते ATS ने 2006 में 13 आरोपियों को गिरफ्तार किया था और दावा किया था कि यह हमला लश्कर-ए-तैयबा और सिमी जैसे संगठनों की साजिश थी। 2015 में विशेष मकोका कोर्ट ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया, जिसमें 5 को फांसी और 7 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। लेकिन हाई कोर्ट ने इन सभी सजाओं को रद्द कर दिया।
जज और जांच एजेंसियों पर आलोचना
हाई कोर्ट के इस फैसले ने जनता और पीड़ित परिवारों में गुस्से की लहर पैदा कर दी। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसे “न्याय का मखौल” करार दिया। एक एक्स पोस्ट में यूजर ने लिखा, “जज साहब के हिसाब से क्या यह धमाके तकनीकी खामी से हुए थे? 189 मौतों का जिम्मेदार कौन है?” भाजपा नेता किरीट सोमैया ने भी इस फैसले पर निराशा जताते हुए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मांग की।
आलोचकों का कहना है कि यह फैसला जांच एजेंसियों की नाकामी को दर्शाता है। इतने बड़े आतंकी हमले की जांच में अगर 19 साल बाद भी ठोस सबूत नहीं जुटाए जा सके, तो यह सवाल उठता है कि जांच की गुणवत्ता और निष्पक्षता पर क्या भरोसा किया जा सकता है? दूसरी ओर, आरोपियों के वकीलों ने दावा किया कि उनके मुवक्किलों को झूठा फंसाया गया और 18 साल तक बिना सबूत जेल में रखा गया।
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न्याय में देरी: एक और अन्याय
इस फैसले ने एक बार फिर भारत की न्यायिक व्यवस्था में देरी की समस्या को उजागर किया। 19 साल तक जेल में रहने के बाद अगर आरोपी बरी हो रहे हैं, तो उनके खोए हुए साल कौन लौटाएगा? साथ ही, पीड़ित परिवार जो सालों से न्याय की उम्मीद लगाए बैठे थे, उनके लिए यह फैसला एक बड़ा झटका है। एक एक्स यूजर ने लिखा, “इंसाफ में इतनी देरी, क्या ये भी एक अन्याय नहीं?”
निष्कर्ष: सच्चाई अभी भी धुंधली
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस का यह फैसला कई सवाल छोड़ गया है। क्या असली अपराधी अभी भी आजाद हैं? क्या जांच एजेंसियों ने जल्दबाजी में गलत लोगों को फंसाया? या फिर सबूतों को ठीक से पेश करने में चूक हुई? यह फैसला न केवल जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी बताता है कि आतंकवाद जैसे जटिल मामलों में न्याय सुनिश्चित करना कितना चुनौतीपूर्ण है। पीड़ितों के परिवारों को न्याय का इंतजार है, लेकिन यह फैसला उनके जख्मों को और गहरा कर गया। सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट में अपील से कोई नया मोड़ आएगा, या 189 मौतों का रहस्य हमेशा अनसुलझा रहेगा?
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