नाबालिक के ब्रेस्ट छूना रेप की कोशिश नहीं : कलकत्ता हाई कोर्ट
हाल ही में कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक विवादास्पद टिप्पणी की, जिसमें कहा गया कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूने की कोशिश को POCSO (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंस) एक्ट के तहत रेप की कोशिश नहीं माना जा सकता, बल्कि इसे “गंभीर यौन उत्पीड़न” की श्रेणी में रखा गया। इस फैसले ने समाज में एक गंभीर बहस छेड़ दी है। यह बयान न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी गहरे हैं। इस ब्लॉग में हम इस फैसले के विभिन्न पहलुओं, समाज पर इसके प्रभाव, और क्या यह मनचलों का मनोबल बढ़ा सकता है, इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
कलकत्ता हाई कोर्ट का फैसला: क्या है पूरा मामला?
कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक POCSO केस की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। मामले में एक नाबालिग लड़की के साथ यौन उत्पीड़न का आरोप था, जिसमें आरोपी ने नशे की हालत में पीड़िता के स्तनों को छूने की कोशिश की थी। निचली अदालत ने आरोपी को रेप की कोशिश और गंभीर यौन उत्पीड़न दोनों का दोषी ठहराते हुए 12 साल की सजा सुनाई थी। हालांकि, हाई कोर्ट ने इस फैसले को पलटते हुए कहा कि यह रेप की कोशिश नहीं, बल्कि गंभीर यौन उत्पीड़न है। इसके आधार पर आरोपी की सजा को कम करने की संभावना जताई गई, और उसे जमानत दे दी गई।
यह फैसला कई मायनों में चौंकाने वाला है, क्योंकि POCSO एक्ट का मकसद बच्चों को यौन शोषण से बचाना है, और इसमें यौन उत्पीड़न के सभी रूपों को गंभीरता से लिया जाता है। कोर्ट ने यह तर्क दिया कि बिना पेनेट्रेशन के किसी कार्य को रेप की कोशिश नहीं माना जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह तकनीकी व्याख्या समाज में सही संदेश दे रही है?
समाज में इससे क्या संदेश जाएगा?
कानूनी व्याख्या बनाम सामाजिक धारणा:
कोर्ट का यह फैसला तकनीकी रूप से कानूनी परिभाषाओं पर आधारित हो सकता है, लेकिन समाज इसे अलग नजरिए से देखता है। आम लोग कानून की बारीकियों को समझने के बजाय इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि नाबालिग के साथ यौन उत्पीड़न को हल्के में लिया जा रहा है। यह धारणा खासकर उन लोगों में मजबूत हो सकती है जो पहले से ही यौन अपराधों को सामान्य मानते हैं।
पीड़ितों का विश्वास कम होना:
यह फैसला यौन उत्पीड़न की शिकार नाबालिग लड़कियों और उनके परिवारों के मन में न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा कर सकता है। अगर पीड़ित को लगता है कि उसका दर्द और अपमान को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा, तो वह शिकायत दर्ज करने से हिचकिचाएगा। इससे यौन अपराधों की रिपोर्टिंग दर और कम हो सकती है।
लिंग संवेदनशीलता की कमी:
कोर्ट की यह टिप्पणी लिंग संवेदनशीलता की कमी को दर्शाती है। नाबालिग लड़कियों के साथ यौन उत्पीड़न, चाहे वह किसी भी रूप में हो, उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डालता है। इसे केवल “गंभीर यौन उत्पीड़न” कहकर कमतर आंकना समाज में गलत संदेश दे सकता है।
कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसलों से क्या मनचलों का मनोबल बढ़ेगा?
कम सजा का डर:
इस फैसले से यह संदेश जा सकता है कि यौन उत्पीड़न के कुछ रूपों को हल्का माना जाएगा। अगर अपराधियों को लगता है कि उनकी सजा कम होगी या उन्हें आसानी से जमानत मिल जाएगी, तो यह उनके मनोबल को बढ़ा सकता है। विशेष रूप से नाबालिगों को निशाना बनाने वाले अपराधी इस तरह के फैसलों से प्रोत्साहित हो सकते हैं।
सामाजिक स्वीकार्यता का खतरा:
समाज में पहले से ही यौन उत्पीड़न को लेकर कई गलत धारणाएं मौजूद हैं, जैसे “लड़कियों का व्यवहार ही ऐसी घटनाओं को न्योता देता है।” इस तरह के फैसले इन धारणाओं को और मजबूत कर सकते हैं, जिससे अपराधियों को सामाजिक स्वीकार्यता मिलने का खतरा बढ़ सकता है।
नाबालिगों की सुरक्षा पर सवाल:
POCSO एक्ट का उद्देश्य बच्चों को यौन शोषण से बचाना है। लेकिन जब कोर्ट इस तरह की टिप्पणी करता है, तो यह सवाल उठता है कि क्या नाबालिगों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जा रही है? अगर अपराधी यह समझने लगें कि उनके कार्यों को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, तो नाबालिगों के खिलाफ अपराध बढ़ सकते हैं।
इस फैसले की आलोचना और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
यह पहली बार नहीं है जब किसी हाई कोर्ट के फैसले पर सवाल उठे हैं। हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी एक मामले में कहा था कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना और पायजामे का नाड़ा तोड़ना रेप की कोशिश नहीं है। इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि इस तरह की टिप्पणियां “असंवेदनशील और अमानवीय” हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि जजों को यौन अपराधों से जुड़े मामलों में संवेदनशीलता बरतनी चाहिए।
कलकत्ता हाई कोर्ट के इस फैसले पर भी सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की मांग उठ रही है। सामाजिक कार्यकर्ता, महिला संगठन, और आम लोग इस टिप्पणी को लेकर नाराजगी जता रहे हैं। यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में दखल दे और स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करे ताकि भविष्य में ऐसी टिप्पणियां न हों।
समाज और सरकार की जिम्मेदारी
जागरूकता और शिक्षा:
समाज को यौन उत्पीड़न के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को उनके अधिकारों और सुरक्षित रहने के तरीकों के बारे में शिक्षित करना चाहिए।
कठोर कानून और त्वरित न्याय:
यौन अपराधों के मामलों में त्वरित सुनवाई और कठोर सजा सुनिश्चित करने की जरूरत है। अगर अपराधियों को तुरंत सजा मिलेगी, तो यह उनके मनोबल को तोड़ेगा।
न्यायिक प्रशिक्षण:
जजों और वकीलों को यौन अपराधों से जुड़े मामलों में संवेदनशीलता और लिंग आधारित हिंसा के प्रभावों के बारे में प्रशिक्षण देना चाहिए। इससे ऐसी टिप्पणियों को रोका जा सकता है।
कलकत्ता हाई कोर्ट का यह फैसला भले ही कानूनी दृष्टिकोण से तकनीकी आधार पर लिया गया हो, लेकिन इसका सामाजिक प्रभाव गंभीर है। यह समाज में गलत संदेश दे सकता है और मनचलों का मनोबल बढ़ाने का खतरा पैदा कर सकता है। नाबालिगों की सुरक्षा और यौन उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में सभी हितधारकों—न्यायपालिका, सरकार, और समाज—को एकजुट होकर काम करने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी टिप्पणियां न हों और पीड़ितों को न्याय मिले।
आइए, हम सब मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहां हर बच्चा सुरक्षित हो और हर अपराधी को उसके कृत्य की सजा मिले। आप इस मुद्दे पर क्या सोचते हैं? अपनी राय कमेंट में साझा करें!
I am a mass communication student and passionate writer. With the last four -year writing experience, I present intensive analysis on politics, education, social issues and viral subjects. Through my blog, I try to spread awareness in the society and motivate positive changes.